[पिछ्ले भाग में आपने पढ़ा कि किस प्रकार शेखर पाठक जी अपने साथियों के साथ गौरा देवी से मिले। आज के भाग में जानिये कि क्या हुआ रैनी में 26 मार्च 1974 को और कैसे हुई चिपको के आंदोलन की शुरुआत। ]
रैणी: 26 मार्च 1974
1970 की बाढ़ ने समस्त अलकनन्दा/गंगा घाटी को भयभीत किया था। 1973 में जंगलों के कटान के खिलाफ मंडल, गोपेश्वर तथा रामपुर फाटा में जो प्रतिरोध हुए थे, उनकी खबर चमोली के दूरस्थ गाँवों तक पहुँचने लगी थी। इस सूचना के वाहक थे कुछ स्थानीय सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता और गोपेश्वर कालेज में पढ़ने वाले दूरस्थ गाँवों के छात्र।
Chipko poster from Sangharshnama
1972 में गौरा देवी रैणी महिला मंगल दल की अध्यक्षा बनीं। नवम्बर 1973 में और उसके बाद गोविंद सिंह रावत, चंडी प्रसाद भट्ट, वासवानन्द नौटियाल, हयात सिंह तथा कई दर्जन छात्र उस क्षेत्र में आये। रैणी तथा आस-पास के गाँवों में अनेक सभाएँ हुई। जनवरी 1974 में रैंणी जंगल के 2451 पेड़ों की निलामी की बोली देहरादून में लगने वाली थी। मण्डल और फाटा की सफलता ने आन्दोलनकारियों में आत्म-विश्वास बढ़ाया था। वहाँ अपनी बात रखने की कोशिश में गये चंडी प्रसाद भट्ट अन्त में ठेकेदार के मुन्शी से कह आये कि अपने ठेकेदार को बता देना कि उसे चिपको आन्दोलन का मुकाबला करना पड़ेगा। उधर गोविन्द सिंह रावत ने ‘आ गया है लाल निशान, ठेकेदारो सावधान’ पर्चा क्षेत्र में स्वयं जाकर बाँटा। अन्ततः मण्डल और फाटा की तरह रैंणी में भी प्रतिरोध का नया रूप प्रकट हुआ।
15 तथा 24 मार्च 1974 को जोशीमठ में तथा 23 मार्च को गोपेश्वर में रैंणी जंगल के कटान के विरुद्ध प्रदर्शन हुए। आन्दोलनकारी गाँव-गाँव घूमे, जगह-जगह सभाएँ हुईं लेकिन प्रशासन, वन विभाग तथा ठेकेदार की मिलीभगत से अन्ततः जंगल काटने आये हिमाचली मजदूर रैणी पहुँच गये। जो दिन यानी 26 मार्च 1974 जंगल कटान के लिये तय हुआ था, वही दिन उन खेतों के मुआवजे को बाँटने के लिये भी तय हुआ, जो 1962 के बाद सड़क बनने से कट गये थे। सीमान्ती गाँवों की गरीबी और गर्दिश ने मलारी, लाता तथा रैणी के लोगों को मुआवजा लेने के लिए जाने को बाध्य किया। पूरे एक दशक बाद भुगतान की बारी आयी थी। सभी पुरुष चमोली चले गये।
26 मार्च 1974 को रैणी के जंगल में जाने से मजदूरों को रोकने के लिए न तो गाँव के पुरुष थे न कोई और। हयात सिंह कटान के लिए मजदूरों के पहुँचने की सूचना दसौली ग्राम स्वराज्य संघ को देने गोपेश्वर गये। गोविन्द सिंह रावत अकेले पड़ गये और उन पर खुफिया विभाग की निरनतर नजर थी। चंडी प्रसाद भट्ट तथा दसौली ग्राम स्वराज्य संघ के कार्यकर्ताओं को वन विभाग के बड़े अधिकारियों ने अपने नियोजित कार्यक्रमों के तहत गोपेश्वर में अटका दिया था। मजदूरों के आने की सूचना उन तक नहीं पहुंचने दी। ऐसे में किसी को जंगल बचने की क्या उम्मीद होती! किसी के मन के किसी कोने में भी शायद यह विचार नहीं आया होगा कि पहाड़ों में जिन्दा रहने की समग्र लड़ाई लड़ रही महिलाएं ही अन्ततः रैणी का जंगल बचायेंगी।
26 मार्च 1974 की ठंडी सुबह को मजदूर जोशीमठ से बस द्वारा और वन विभाग के कर्मचारी जीप द्वारा रैणी की ओर चले। रैणी से पहले ही सब उतर गये और चुपचाप ऋषिगंगा के किनारे-किनारे फर, सुरई तथा देवदारु आदि के जंगल की ओर बढ़ने लगे। एक लड़की ने यह हलचल देख ली। वह महिला मंगल दल की अध्यक्षा गौरा देवी के पास गई। ‘चिपको’ शब्द सुनकर मुँह छिपाकर हँसने वाली गौरा देवी गम्भीर थी। पारिवारिक संकट तो उन्होंने कितने सारे झेले और सुलझाये थे, आज उन्हें एक सामुदायिक जिम्मेदारी निभानी थी। कठिन परीक्षा का समय था।
Surviving participants of the first all-woman Chipko action at Reni village reassembled thirty years later.
खाना बना रही या कपड़े धो रही महिलाएँ इकट्ठी हो गईं। गौरा देवी के साथ 27 महिलाएँ तथा बेटियां देखते-देखते जंगल की ओर चल पड़ीं। गौरा देवी के साथ घट्टी देवी, भादी देवी, बिदुली देवी, डूका देवी, बाटी देवी, गौमती देवी, मूसी देवी, नौरती देवी, मालमती देवी, उमा देवी, हरकी देवी, बाली देवी, फगुणी देवी, मंता देवी, फली देवी, चन्द्री देवी, जूठी देवी, रुप्सा देवी, चिलाड़ी देवी, इंद्री देवी आदि ही नहीं बच्चियाँ- पार्वती, मेंथुली, रमोती, बाली, कल्पति, झड़ी और रुद्रा- भी गम्भीर थीं। आशंका तथा आत्मविश्वास साथ-साथ चल रहे थे। होठों पर कोई गीत न था। शायद कुछ महिलाएँ अपने मन में भगवती नन्दा को याद कर रही हों। रास्ते से जा रहे मजदूरों को बताया कि वे जंगल की रक्षा के लिये जा रही हैं। मजदूरों को रुकने के लिये कहा। उन्होंने कहा कि खाना बना है उपर। तो उनका बोझ वहीं रखवा लिया गया। माँ-बहनों और बच्चों का यह दल मजदूरों के पास पहुँच गया। वे खाना बना रहे थे। कुछ कुल्हाड़ियों को परख रहे थे। ठेकेदार तथा वन विभाग के कारिन्दे (इनमें से कुछ सुबह से ही शराब पिये हुए थे) कटान की रूपरेखा बना रहे थे।
सभी अवाक थे। यह कल्पना ही नहीं की गई थी कि उनका जंगल काटने इस तरह लोग आयेंगे। महिलाओं ने मजदूरों और कारिन्दों से कहा कि खाकर के चले जाओ। कारिन्दों ने डराने धमकाने का प्रयास शुरू कर दिया। महिलाएँ झुकने के लिये तैयार नहीं थीं। डेड़-दो घंटे बाद जब वन विभाग के कारिन्दों ने मजदूरों से कहा कि अब कटान शुरू कर दो। महिलाओं ने पुनः मजदूरों को वापस जाने की सलाह दी।
50 से अधिक कारिन्दों-मजदूरों से गौरा देवी तथा साथियों ने अत्यन्त विनीत स्वर में कहा कि- ‘यह जंगल भाइयो, हमारा मायका है। इससे हमें जड़ी-बूटी, सब्जी, फल, लकड़ी मिलती है। जंगल काटोगे तो बाढ़ आयेगी। हमारे बगड़ बह जायेंगे। खेती नष्ट हो जायेगी। खाना खा लो और फिर हमारे साथ चलो। जब हमारे मर्द आ जायेंगे तो फैसला होगा।’
मजदूर असमंजस में थे। पर ठेकेदार और जंगलात के आदमी उन्हें डराने-धमकाने लगे। काम में रुकावट डालने पर गिरफ्तार करने की धमकी के बाद इनमें से एक ने बंदूक भी महिलाओं को डराने के लिये निकाल ली। महिलाओं में दहशत तो नहीं फैली पर तुरन्त कोई भाव भी प्रकट नहीं हुआ। उन सबके भीतर छुपा रौद्र रूप तब गौरा देवी के मार्फत प्रकट हुआ, जब बन्दूक का निशाना उनकी ओर साधा गया। अपनी छाती खोलकर उन्होंने कहा-‘‘मारो गोली और काट लो हमारा मायका।’’ गौरा की गरजती आवाज सुनकर मजदूरों में भगदड़ मच गई। गौरा को और अधिक बोलने और ललकारने की जरूरत नहीं पड़ी। मजदूर नीचे को खिसकने लगे। मजदूरों की दूसरी टोली, जो राशन लेकर ऊपर को आ रही थी, को भी रोक लिया गया।
अन्ततः सभी नीचे चले गये। ऋषिगंगा के किनारे जो सिमेंट का पुल एक नाले में डाला गया था, उसे भी महिलाओं ने उखाड़ दिया ताकि फिर कोई जंगल की ओर न जा सके। सड़क और जंगल को मिलाने वाली पगडंडी पर महिलाएँ रुकी रहीं। ठेकेदार के आदमियों ने गौरा देवी को फिर डराने-धमकाने की कोशिश की। बल्कि उनके मुँह पर थूक तक दिया लेकिन गौरा देवी के भीतर की माँ उनको नियंत्रित किये थीं। वे चुप रहीं। उसी जगह सब बैठे रहे।धीरे धीरे सभी नीचे उतर गये। ऋषिगंगा यह सब देख रही थी। वह नदी भी इस खबर को अपने बहाव के साथ पूरे गढ़वाल में ले जाना चाहती होगी।
अगली सुबह रैणी के पुरुष ही नहीं, गोविन्द सिंह रावत, चंडी प्रसाद भट्ट और हयात सिंह भी आ गये। रैणी की महिलाओं का मायका बच गया और प्रतिरोध की सौम्यता और गरिमा भी बनी रही। 27 मार्च 1974 को रैणी में सभा हुई, फिर 31 मार्च को। इस बीच बारी-बारी से जंगल की निगरानी की गई। मजदूरों को समझाया-बुझाया गया। 3 तथा 5 अप्रैल 1974 को भी प्रदर्शन हुए। 6 अप्रैल को डी.एफ.ओ. से वार्ता हुई। 7 तथा 11 अप्रैल को पुनः प्रदर्शन हुए। पूरे तंत्र पर इतना भारी दबाव पड़ा कि मुख्यमंत्री हेमवतीनन्दन बहुगुणा की सरकार ने डॉ. वीरेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में रैणी जाँच कमेटी बिठाई और जाँच के बाद रैणी के जंगल के साथ-साथ अलकनन्दा में बायीं ओर से मिलने वाली समस्त नदियों-ऋषिगंगा, पाताल गंगा, गरुण गंगा, विरही और नन्दाकिनी- के जल ग्रहण क्षेत्रों तथा कुँवारी पर्वत के जंगलों की सुरक्षा की बात उभरकर सामने आई और सरकार को इस हेतु निर्णय लेने पड़े। रैंणी सीमान्त के एक चुप गाँव से दुनियाँ का एक चर्चित गाँव हो गया और गौरा देवी चिपको आन्दोलन और इसमें महिलाओं की निर्णायक भागीदारी की प्रतीक बन गईं।
अगले भाग में जारी ….
शेखर पाठक, संपादक पहाड़, ‘परिक्रमा’, तल्ला डांडा, तल्लीताल, नैनीताल-263002
पिछ्ले भाग
1. एक थीं गौरा देवी: एक माँ के बहाने चिपको आन्दोलन की याद – 1
interesting
संघर्ष से जुड़े अपने इतिहास ओर नायकों को याद करना निश्चित रूप से गोरव से परीपूर्ण कर देता है पर इतिहास निर्मम भी होता हैं गोरा देवी के संघर्ष को भुलाया नहीं जा सकता लेकिन चिपको से आज तक उसके फलो का स्वाद चख रहे लोग क्या इसके दुष्प्रभावों को भी स्वाकीर करने के लिए भी तेयार है आशा है शेखरदा इस नजरीये से भी चिपको का मूल्यांकन करंगे
I FEEL CUTTING OF THE TREES ARE CONTINUE IN HARIDWAR NEAR ABOUT SOUTH SIDE OF THE LOK SEVA AAYOG HOUSING, BUT OUR UTTRA-KHAND ADMINISTRATION HAS BEEN SLEPT. PLEASE REBIRTH TO CHIPAKO AANDOLAN IN JAGJITPUR VILLAGE OK
Thoughtful and historical facts about chipko andolan.
chipko movement is a wold famous movement